RepresentationofHillsinUttarakhand

उत्तराखंड में इन दिनों चौथे विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है लेकिन पहाड़ के पहाड़ जैसे मुश्किल ओर जटिल जीवन को सहज और खुशहाल बनाने के मकसद के मांगे गए अलग राज्य उत्तराखंड में पहाड़ के विधायकों की संख्या किस तरह से घट रही है। आने वाले समय मे कैसे उत्तराखंड की तजनीति केवल देहरादून हरिद्वार और उधमसिंह नगर तक सिमट कर रहने वाली है जानिए विस्तार में।

Representation of Hills after delimitation in Uttarakhand
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उत्तरप्रदेश से अलग होने पर उत्तराखंड के हिस्से में थी 30 सीटें

(Hills in Uttarakhand) 9 नवंबर 2000 को जब उत्तराखंड राज्य उत्तर प्रदेश से अलग हुआ तो उस समय उत्तराखंड में विधानसभा और विधान परिषद को मिलाकर कुल 30 सीटें थी जिसमें से 19 पहाड़ की थी और बाकी मैदान की थी मैदानी इलाकों में हरिद्वार जैसे कुछ इलाकों को उत्तराखंड में मिलाया गया तो वही नैनीताल के कुछ हिस्से को उत्तर प्रदेश में शामिल किया गया और  उत्तर प्रदेश से अलग हुए उत्तराखंड की अंतरिम सरकार में विधानसभा और विधान परिषद कुल मिलाकर 30 सीटें थी।

उत्तराखंड में पहली दफा 2001 में परिसीमन हुआ। पहाड़ का नेतृत्व को दी गयी प्राथमिकता

यह भी एक ऐतिहासिक पहलू है कि पूरे देश में पहले परिसीमन आयोग के गठन होने से पहले ही हाल ही में गठन हुए राज्य उत्तराखंड में एक परिसीमन हो चुका था जैसे कि नए राज्य उत्तराखंड में पहले चुनाव करवाने के लिए 2002 से पहले लागू किया गया उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव करवाने के लिए हुए इस परिसीमन को कुलदीप सिंह कमीशन के नाम से जाना जाता है और 2002 में यह लागू हुआ जिसके बाद उत्तराखंड को पहली दफा 70 सीटों में बांटा गया जिसमें पहाड़ से 40 सीटें थी और मैदान से 30 सीटें थी। 2002 के चुनाव इसी परिसीमन के तहत हुआ।

2002 के चुनाव परिणामों में भी मैदान पर था पहाड़ भारी

वर्ष 2002 में उत्तराखंड में पहला चुनाव हुआ और पहली बार हुए इस चुनाव में 927 प्रत्याशी मैदान में उतरे इस चुनाव में 55 सीटें सामान्य थी 12 अनुसूचित थी और 3 सीटें अनुसूचित जनजाति की थी। वर्ष 2002 में उत्तराखंड मैं कुल मतदाता तकरीबन 53 लाख के आसपास दे जिसमें से 54.34% लोगों ने उत्तराखंड के पहले मतदान में अपना योगदान दिया। उत्तराखंड में हुए इस पहले चुनाव में खूब खिलाड़ी मैदान में उतरे थे लेकिन जीत कर आए लोगों के गर्म बात करें तो सबसे ज्यादा कांग्रेस ने 36 सीटों पर जीत हासिल की थी। इसके बाद दूसरे नंबर पर भाजपा मात्र 19 सीटें जीत पाई तो वही बीएसपी ने 7 सीटें जीती और उत्तराखंड राज्य आंदोलन के गर्भ से जन्म लेने वाली उत्तराखंड क्रांति दल पार्टी के भी चार विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे वही इसके अलावा 3 निर्दलीय प्रत्याशी और  इसके अलावा घनसाली विधानसभा से NCP से बलवीर सिंह नेगी जीत कर आये हालांकि बाद में वह कांग्रेस में शामिल हो गए थे।

2012 में दूसरे परिसीमन के बाद घट गई पहाड़ के 6 विधायक

उत्तराखंड में 2002 के चुनाव होने के बाद देश में पहली दफा वर्ष 2006 में राष्ट्रीय परिसीमन आयोग का गठन हुआ जिसके बाद उत्तराखंड में भी परिसीमन की प्रक्रिया शुरू हुई और परिसीमन आयोग की फाइनल रिपोर्ट वर्ष 2008 में आयोग को सौंपी गई और उसके बाद पूरे देश में लागू होने के बाद उत्तराखंड में यह 2012 विधानसभा चुनाव में लागू हुआ। 2012 के परिसीमन का आधार 2001 की जनगणना थी और विधानसभा को लेकर जहां मैदानों में एक लाख से अधिक जनसंख्या को एक विधानसभा का मानक रखा गया तो वही पहाड़ों पर इसे घटाकर एक लाख से कम 85 हजार तक की जनसंख्या वाले क्षेत्र को एक विधानसभा बनाने का मानक रखा गया लेकिन पहाड़ के लिए इतनी रियायत रखने के बावजूद भी पहाड़ का नेतृत्व घटने लगा और अब तक जंहा पहाड़ मैं 2001 के परिसीमन के अनुसार 40 सीटें थी और मैदान में 30 सीटें थी लेकिन 2012 के परिसीमन में पहाड़ की 6 सीटें घटकर 34 हो गई और मैदान की 6 सीटें बढ़कर 30 से 36 हो गई जिसमें नंदप्रयाग, पिंडर जैसी कई विधानसभाओं को मर्ज कम कर दिया गया।

अभी और घटेगा पहाड़ का नेतृत्व, 2026 में पहाड़ के विधायकों के ओर कम होने की आशंका

Uttarakhand journalist
jay sigh rawat, senior journalist uttarakhand

परिसीमन आयोग के संस्तुती के अनुसार हर 20 साल के बाद परिसीमन होना है जिसके अनुसार अब वर्ष 2026 में एक बार फिर से परिसीमन की प्रक्रिया शुरू होगी जोकि उम्मीद है कि 2030 या 31 तक लागू होगा और अगर हम भविष्य की संभावनाओं की बात करें तो उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में लगातार पलायन बढ़ रहा है और यहां की जनसंख्या में घट रही है और जो मानक परिसीमन आयोग का है उस मानक के अनुसार पहाड़ की विधानसभा सीटें एक बार फिर से घट सकती है ऐसे में पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की परिकल्पना किस दिशा की ओर जा रही है यह सोचने वाली बात है। वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत का कहना है कि पहाड़ के नाम पर लिए गये अलग राज्य उत्तराखंड में अगर पहाड़ का नेतृत्व ही नही बचेगा तो कैसे आन्दोलन से जन्म लिए इस राज्य का वास्तिविक परिकल्पना पूरी हो पायेगी। इसके लिए हर वर्ग के कुछ लोग है जो 2026 में आने वाले परिसीमन में जनसंख्या नही बल्की भोगोलिक क्षेत्रफल को आधार बनाकर परिसीमन की माग की बात कर रहे हैं लेकिन यह मांग अभि उतने व्यापक स्तर पर नही उठ पाई है। जरुरत है कि हर कोई उत्तराखंडी इस मांग को पुरजोर तरीके से उठाए ताकी परिसीमन आयोग तक यह बात पंहुच पाये।