प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार 5 नवंबर को केदारनाथ में आदि गुरु शंकराचार्य की भव्य मूर्ति का अनावरण करेंगे। आदि गुरु शंकराचार्य की इस मूर्ति की क्या खासियत है और आदि गुरु शंकराचार्य का केदारनाथ के साथ साथ पूरे सनातन धर्म से क्या कनेक्शन है, हम आपको बता देते हैं।
Specialty of the statue of Adi Guru Shankaracharya
5 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तराखंड दौरे पर है वह केदारनाथ में आदि गुरु शंकराचार्य की प्रतिमा का अनावरण करेंगे और इसके अलावा केदारनाथ में चल रहे पुनर्निर्माण के लोकार्पण करेंगे तो वहीं इस मौके पर सभी शिवालयों और मठों में पूजा अर्चना की जाएगी।
ब्लैक स्टोन से बनी आदि गुरु शंकराचार्य की मूर्ति की खासियत जाने…
ब्लैक स्टोन से बनी आदि गुरु शंकराचार्य की मूर्ति पर आग पानी बारिश और हवा का किसी भी तरह का कोई असर नहीं होगा तो वही यह मूर्ति हर तरह के मौसम की मार सहने के लिए बनाई गई है। आदि गुरु शंकराचार्य की हम मूर्ति तकरीबन 35 टन की है जो कि भारतीय वायुसेना के चिनूक हेलीकॉप्टर की मदद से केदारनाथ पहुंची है। तराशने से पहले यह तकरीबन 135 टन की शिला थी जिसे मूर्ति के रूप में तराश के 35 टन की मूर्ति बनाई गई है। ब्लैक स्टोन से बनी आदि गुरु शंकराचार्य की मूर्ति बनाने के लिए अट्ठारह अलग-अलग मूर्ति कारों को मॉडल दिए गए थे जिनमें से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सहमति के बाद मैसूर कर्नाटक के मूर्तिकार अरुण योगीराज ने इस मूर्ति को बनाया। मूर्ति का निर्माण 2019 में शुरू किया गया था और इसे 1 साल तक लगातार बिना रुके तैयार किया गया। बताया जाता है कि मूर्तिकार अरुण योगीराज की 5 पीढ़ियों के 9 लोंगों ने मिलकर इस मूर्ति को तराशा है और उनका यह पुश्तैनी कारोबार है। इसी मूर्ति का अनावरण कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केदारनाथ में करेंगे। ब्लैक स्टोन से बनी 12 फीट की इस मूर्ति को चमकदार बनाने के लिए नारियल पानी का भरपूर इस्तेमाल किया गया है जिससे कि मूर्ति का सरफेस चमकदार हो और आदि गुरु शंकराचार्य के तेज को प्रदर्शित करे।
विडीओ का लिंक 👇 https://youtube.com/shorts/7a0LaGiq-XQ?feature=share
32 साल की उम्र में देह त्यागने वाले चमत्कारी थे आदि गुरु शंकराचार्य, जाने उनके बारे में रोचक तथ्य
आपको बता दें कि कि जिन आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म के प्रसिद्ध चारों धाम और मठों की स्थापना की और जिन्होंने सनातन धर्म के वैभव को बचाने के लिए और सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोने में महत्वपूर्ण योगदान दिया और 32 साल की उम्र में उन्होंने अपना दी है त्याग दिया था ऐसे आदि गुरु शंकराचार्य के चमत्कारी व्यक्तित्व के बारे में आइए जानते हैं।
एक नन्हें से बालक के महज 2 वर्ष में वेद, उपनिषद के ज्ञान और 7 वर्ष में संन्यास जीवन में प्रवेश कर जाने की बात निश्चय ही हैरान कर देती है। लेकिन कहते हैं न कि हर सफल पुरुष के पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ होता है तो बालक ‘शंकर’ के जगद्गुरु आदि शंकराचार्य बनने के पीछे भी एक स्त्री यानी कि उनकी मां को ही श्रेय जाता है। यह उनकी महानता ही थी कि बरसों बाद जन्में एक मात्र पुत्र को उन्होंने न केवल शिक्षा दी बल्कि उसके जगद्गुरु बनने का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया। लेकिन अद्भुत यह भी है कि बालक शंकर के मातृ प्रेम को देखकर एक नदी ने भी अपना रुख मोड़ दिया। साथ ही एक संन्यासी होकर भी उन्होंने अपनी मां का दाह संस्कार करके अपने पुत्र कर्तव्य का भी पालन किया। 9 मई को जगद्गुरु शंकराचार्य की जयंती है, इस मौके पर जानते हैं उनके जीवन से संबंधित कुछ रोचक बातें…
शंकराचार्य का जन्म केरल के कालड़ी गांव में ब्राह्मण दंपत्ति शिवगुरु नामपुद्रि और विशिष्टा देवी के घर में भोलेनाथ की कृपा से हुआ था। इस संबंध में कथा मिलती है कि शिवगुरु ने अपनी पत्नी के साथ पुत्र प्राप्ति के लिए शिवजी की आराधना की। इसके बाद शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें एक पुत्र का वरदान दिया लेकिन यह शर्त रखी कि पुत्र सर्वज्ञ होगा तो अल्पायु होगा। यदि दीर्घायु पुत्र की कामना है तो वह सर्वज्ञ नहीं होगा। इसपर शिवगुरु ने अल्पायु सर्वज्ञ पुत्र का वरदान मांगा। इसके बाद भोलेनाथ ने स्वयं ही उनके घर पर जन्म लेने का वरदान दिया। इस तरह वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन आदि गुरु का जन्म हुआ और उनका नाम शंकर रखा गया।
बहुत ही कम उम्र में सिर से पिता का साया उठ गया। इसके बाद मां विशिष्टा देवी ने शंकराचार्य को वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया। गुरुजन इनके विलक्षण ज्ञान से चकित थे। शंकराचार्य को पहले से ही वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत सहित सभी धर्मग्रंथ कंठस्थ थे।
शकराचार्य जी अपनी मां की इतनी सेवा और सम्मान करते थे कि उनके गांव से दूर बहने वाली नदी को भी अपनी दिशा मोड़नी पड़ी। कथा मिलती है कि शंकराचार्य जी की मां को स्नान के लिए पूर्णा नदी तक जाना पड़ता था, वह गांव से बहुत दूर बहती थी। लेकिन शंकराचार्यजी की मातृ भक्ति को देखकर नदी ने भी अपना रुख उनके गांव कालड़ी की ओर मोड़ दिया।
था मिलती है कि एक दिन शंकराचार्य ने अपनी मां से संन्यास लेने की बात कही। एक मात्र पुत्र के संन्यासी बनने पर वह सहमत नहीं हुई। इसके बाद शंकराचार्यजी ने उनसे नारद मुनि के संन्यास जीवन में प्रवेश लेने की घटना का उदाहरण दिया कि किस तरह से वह संन्यासी बनने चाहते थे लेकिन उनकी मां ने आज्ञा नहीं दी। एक दिन सर्पदंश से उनकी मां का देहावसान हो गया। इसके बाद परिस्थितियों के चलते नारद मुनि संन्यासी बन गए। इसपर विशिष्टा देवी को काफी दु:ख हुआ। लेकिन शंकराचार्य ने कहा कि उनपर तो सदैव ही मातृछाया रहेगी।
साथ ही उन्होंने अपनी मां को यह वचन दिया कि वह जीवन के अंतिम समय में उनके ही साथ रहेंगे। साथ ही उनका दाह-संस्कार भी स्वयं ही करेंगे। इस तरह उन्हें संन्यासी बनने की आज्ञा मिली और वह संन्यासी जीवन में आगे बढ़ गए। एक अन्य कथा मिलती है कि एक बार नदी में मगरमच्छ ने उनके पांव पकड़ लिए। इसपर उन्होंने अपनी मां से कहा कि मुझे संन्यासी जीवन में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए तभी यह मेरे पैर छोड़ेगा। बेटे के प्राण संकट में जानकर मां ने संन्यास की आज्ञा दे दी। मगरमच्छ ने शंकराचार्य के पैर छोड़ दिए।
मा को दिए वचन के मुताबिक जब शंकराचार्य को अपनी मां के अंतिम समय का आभास हुआ तो वह अपने गांव पहुंच गए। मां ने उन्हें देखकर अंतिम सांस ली। इसके बाद जब दाह-संस्कार की बात आई तो सभी ने उनका यह कहकर विरोध किया कि वह तो संन्यासी हैं और वह ऐसा नहीं कर सकते। इसपर शंकराचार्य ने कहा कि उन्होंने जब अपनी मां को वचन दिया था तब वह संन्यासी नहीं थे। सभी के विरोध करने के बाद भी उन्होंने अपनी मां का दाह-संस्कार किया। लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया। शंकराचार्य ने घर के सामने ही मां की चिता सजाई और अंतिम क्रिया की। इसके बाद यह पंरपरा ही बन गई। आज भी केरल के कालड़ी में घर के सामने ही दाह-संस्कार किया जाता है।
शंकराचार्य केरल से पदयात्रा करते हुए काशी पहुंचे, वहां से उन्होंने योग शिक्षा और अद्वैत ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति की। इसके बाद वह बिहार के महिषी पहुंचे, वहां पर आचार्य मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हराया। हालांकि उनकी पत्नी भारती से वह रति ज्ञान में हार गए। लेकिन वह बाल ब्रह्मचारी थे तो उन्होंने देवी भारती से कुछ समय मांगा और परकाया में प्रवेश करके रति ज्ञान प्राप्त कर दोबारा भारती के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें परास्त कर दिया। शंकराचार्य जी ने 32 वर्ष की आयु में केदारनाथ के निकट अपने प्राण त्यागे। आदि गुरु शंकराचार्य ने ही देश के चारो कोनों में बदरिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ, द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवधर्न पीठ की स्थापना की। जो बाद में शंकराचार्य पीठ कहलाए।